रविवार, 1 मार्च 2009

किशनू की हांडी

माता ने ऊपर चढ़कर हांडी दी लटकाय
किशनू
ने नीचे से ही , झट से दी चटकाय ।
मार गुलेल तोड़ दी हांडी , माखन बिखरन लागा
पाव छटांक हाथ को आया , बाकि हुआ अभागा ।
माता ने जो सुनी आवाज, दौडी दौडी आई
"क्यो रे किशनू के बच्चे ! हांडी क्यों चटकाई ?"




" मैया मैं तो खेल रहा था , साध रहा था हाथ ,
हांडी घर में बहुत धरी हैं , चिंता की क्या बात ।
थोडी जो पड़ जायेंगी तो सौ सौ और मैं ला दूंगा ,
अभिनव जैसे गोल्ड जीतकर , सोने से भरवा दूंगा ।"


माता का माथा भन्नाया , छोरा ख्वाब देखता है ,
" सुन मेरे लाल धरती पर आ जा , क्यों अम्बर में उड़ता है।
उसका घर तो बड़ा अमीर , तुझको कौन सिखायेगा ,
तेरे जैसे लाख पड़े हैं, तू क्या तीर चलाएगा ।
दूध तीस का और एक हांडी पूरे सौ की मिलती है,
तू क्या जाने तनख्वाह में गृहस्थी कैसे चलती है ।



गया जमाना जब तू हांडी फोड़ा करता था ,
आम आदमी घर में अपने माखन जोड़ा करता था ।



इसलिए मेरे लाल , आदत अपनी बदल डाल
भूल जा पिछली सारी बातें , हम यूँ ही रस्म निभा लेंगे ,
दही चुराते छुटपन के तेरे ,
बस फोटो से काम चला लेंगे , बस फोटो से काम चला लेंगे ...... ।

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