बुधवार, 21 दिसंबर 2011

फलसफ़ा ....

"जबसे आया हूँ जमीं पर, कसमसाहट है ...
कभी कुछ यहाँ होता है, कभी कुछ वहाँ होता है..
बोलता हूँ जब कुछ बोलना नहीं,
 जब चिल्लाना हुआ, तब मौन हूँ...
दुःख मिले, छोटे बड़े, रोता भी रहा,
किसी से बांटा, तो किसी से सहा
 रोते हुए भूल गया इस बात को,
 हजारों करोड़ों की भीड़ है, मैं तो बस गौण हूँ...
किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ चाहा, 
सबके लिए, मैं खुद को ढालता गया..
पता पूछते पूछते, कट गयी उमर
 रहता कहाँ हूँ, मैं कौन हूँ....
रहता कहाँ हूँ, मैं कौन हूँ...."

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

करारा

कानों में झनझनाहट है,
उफ़ ये कैसी आहट है,
कहीं मेरे पुराने पाप तो नहीं?
पिद्दी से यें, मेरे बाप तो नहीं?
पता नहीं किधर जा रहे हैं?
साले हमसे टकरा रहे हैं
पंडित जी, राहू पर केतु तो नहीं चढ गया,
गुलाम घोडा, आज कैसे अड गया?
लग रहा है, दिन पूरे हो गए हैं,
बाबा लोग जाने कैसे बीज बो गए हैं?
मैंने तो बोरिया बिस्तर लपेट लिया है,
तुम भी समेट लो,
कल को मत कहना,
 शुक्र शनि सब साजिश कर रहे हैं,
और हम यहाँ बैठे कानों की मालिश कर रहे हैं......

लोकशाही

खेद है, 
रुकावट के लिए खेद है,
चूसने की प्रक्रिया में रुकावट के लिए खेद है...


पर तुम्हारे सन्नाटे में क्या भेद है .....
......
भागो, तुम आम हो हम नहीं डरते...
हमारा दुर्ग अभेद्य है...