रविवार, 22 फ़रवरी 2009

टोको ना ......

एक वक्त था , जब मैं छटपटाता ,
आजाद होकर उड़ना चाहता था,
एक वक्त है , जब मैं आजाद हूँ ,
पर फ़िर भी छटपटाता हूँ ।
पहले टोकने से चिढ़ता था ,
आज टुकना चाहता हूँ ।


चाहता हूँ कोई मुझे रोके, और बात बात पर टोके
टोके, कि ये मत करो और वहां मत जाओ,
इतना ठंडा मत पियो और बाज़ार का मत खाओ,
चलती रेल में मत चढ़ना
अजनबियों से ज्यादा मत खुलना

देर रात तक घूमना सही नहीं है,
अरे वाह ! पूरे दिन से काम में लगे हो और कहते हो
भूख नहीं है।


जब टोकने वाले थे तो टुका नहीं ,
अकेला चलता रहा किसी के लिए रुका नहीं,
अब बेचैन नजरों से अंधेरों में साथी टटोलता जाता हूँ,
कभी अपनी आज़ादी पर हंस लेता हूँ तो
कभी तनहाइयों पर रो जाता हूँ ...

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

जीवन थाती

कर्म कर तू कर्म कर , सर्वस्व अपना होम कर,
जन्मदात्री धरित्री , तुझको बुलाती कर्म कर।
कर्म ही मानव का एकाकी संगी , इस जीवन समर में,
कर्म ही मानव को सिखाता युद्ध करना संकटों में ,
मानवता बेली पनपती कर्म में ही
मिल सकती है मुक्ति बस कर्म से ही।
घहर घहर बरसे बदल , ठहर ठहर कड़के बिजली,
पर्वतों सी बाढ़ सी , या कटीली झाड़ सी,
हृदय को बींधती निकली , हो कोई भी पीर,
ठहर मत मार्ग में कहीं , लक्ष्य से बद्ध कर दृष्टि,
निर्भय हो ऐ कर्मवीर।
निभा अपना कर्तव्य और बढ़ता चल निरंतर,
हृदय को बना पत्थर मिटा दे सारे अन्तर ,
ख़ुद को बना समर्थ के सह सके अघात भीषण,
कर्म का पर्याय ही है , आत्मार्पण और समर्पण।
निराशा कूप से निकल , भर ले हृदय को आशा से प्रबल ,
भले हो झेलने समय के वार तीक्षण,
मनुज तू डर मत।
न छोड़ सहारा आस का,
क्या कभी भी कर्मशील है संकटों से हारा ?
बस हो जा निश्चिंत , अपनी नव ईश को देकर,
जो भी है बस यहीं है,
क्या जाएगा लेकर?
इसलिए यह मर्म कर,
इसे अपना धर्म समझकर ,
कर्म कर तू कर्म कर ,जन्म भर हाँ जन्म भर,
यही है जीवन रहस्य और है जीवन समर ।।

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

अब सब मुझे सुनेंगे ....

हाँ अब लोगो को मुझे सुनना ही पड़ेगा। बहुत हो गया । अब बदलाव आकर रहेगा। मेरी कवितायेँ बदलाव लायेंगी। मेरी हिन्दी कवितायेँ। दुष्यंत की हिन्दी कवितायेँ। COPYRIGHT IS STRICTLY RESERVED.