शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

निरीह

रोज की तरह, नाश्ते की टेबल पर बैठकर टी० वी० खोला,
हांफता हुआ रिपोर्टर बोला..
"जम्मू में आर्मी कैम्प पर आतंकी हमला"

हह, रोज की बात, उनकी ड्यूटी है झेलें....
"क्यूं जी,  बर्तन बहुत हो जाते हैं,
एक नया डिशवाशर ना ले लें "

जब तक खा पीकर उठा,
तीन चार जवान मर लिए..
गाडी में बैठे हम,
और ऑफिस की तरफ चल दिए.

रास्ते में बड़ी बड़ी जगमगाती लाइटों वाले मॉल थे
खाए पिए घरों के इंटेलेक्चुअल लोग और उनके लाल गाल थे..
कोई हंस रहा था कोई खेल रहा था..
रोज की तरह हर कोई अपनी अपनी गाडी ठेल रहा था ..
हम भी ऑफिस में आकर फाइलों में खो गए..
उधर जाने कितने माँ के लाल खेत हुए सो गए..

वैसे भी क्या फर्क पड़ता है, हम ए० सी० में बैठे हैं..
सेफ है, ऐठें हैं..
इतना बड़ा देश है, दो चार मर गए तो भी चलता है..
10-15 हजार तनख्वाह पाने वाली छातियों के ढेर ही तो होंगे,
सब ठीक है, जब तक हमारा पेट पलता है

क्या हुआ गर किसी छोटी सी गुडिया को गोद में झुलाने वाला बाप गया..
मेरी बेटी तो कान्वेंट में पढ़ती है
क्या हुआ गर किसी की मांग का सिन्दूर पुंछ गया
मेरी बीवी तो बनारसी में जंचती है..
कहीं कोई माँ रोये तो क्या,
कहीं कोई बूढा सर पटके तो क्या,
अपना अपना उल्लू गांठों सबसे अच्छा है..
"तू आवेशित क्यों होता है, अभी तू बच्चा है.."

वैसे भी मामूली सी घटना है कोई वार (WAR) नहीं..
पांच ही तो मरे हैं, पचास हजार नहीं..
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