झेलता आया हूँ कमबख्त, पचास साल से...
नामुराद बची है तू, अभी भी काल से?
उग जाती है तू जहाँ देखो, बगैर ताल से
लुट गया मेरा बाल बाल तक, तेरी देखभाल से
सोचा था बस तुझे, उखाड़ मारूँगा
पर हो गया बेजार, गलीज तेरी चाल से ..
काम और काज के सब्जबाग में फंसा
तडप तडप कर रह गया, फटे ही हाल से.. .
देकर कटोरा हाथ में, खुश हुई है तू?
रूक, ना बचेगी तू भी अब, इस भूचाल से...
सुन, और अब मैं झांसे में, तेरे आउंगा नहीं..
खिला दे दाने भले, तू कितने अपनी डाल से..
तोड फेंक दूंगा तुझे, जड समेत हाँ..
उगेंगे अब गुलाब यहां, तेरी खाल से.. .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें