गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

करारा

कानों में झनझनाहट है,
उफ़ ये कैसी आहट है,
कहीं मेरे पुराने पाप तो नहीं?
पिद्दी से यें, मेरे बाप तो नहीं?
पता नहीं किधर जा रहे हैं?
साले हमसे टकरा रहे हैं
पंडित जी, राहू पर केतु तो नहीं चढ गया,
गुलाम घोडा, आज कैसे अड गया?
लग रहा है, दिन पूरे हो गए हैं,
बाबा लोग जाने कैसे बीज बो गए हैं?
मैंने तो बोरिया बिस्तर लपेट लिया है,
तुम भी समेट लो,
कल को मत कहना,
 शुक्र शनि सब साजिश कर रहे हैं,
और हम यहाँ बैठे कानों की मालिश कर रहे हैं......

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