रविवार, 22 फ़रवरी 2009

टोको ना ......

एक वक्त था , जब मैं छटपटाता ,
आजाद होकर उड़ना चाहता था,
एक वक्त है , जब मैं आजाद हूँ ,
पर फ़िर भी छटपटाता हूँ ।
पहले टोकने से चिढ़ता था ,
आज टुकना चाहता हूँ ।


चाहता हूँ कोई मुझे रोके, और बात बात पर टोके
टोके, कि ये मत करो और वहां मत जाओ,
इतना ठंडा मत पियो और बाज़ार का मत खाओ,
चलती रेल में मत चढ़ना
अजनबियों से ज्यादा मत खुलना

देर रात तक घूमना सही नहीं है,
अरे वाह ! पूरे दिन से काम में लगे हो और कहते हो
भूख नहीं है।


जब टोकने वाले थे तो टुका नहीं ,
अकेला चलता रहा किसी के लिए रुका नहीं,
अब बेचैन नजरों से अंधेरों में साथी टटोलता जाता हूँ,
कभी अपनी आज़ादी पर हंस लेता हूँ तो
कभी तनहाइयों पर रो जाता हूँ ...

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