शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

जीवन थाती

कर्म कर तू कर्म कर , सर्वस्व अपना होम कर,
जन्मदात्री धरित्री , तुझको बुलाती कर्म कर।
कर्म ही मानव का एकाकी संगी , इस जीवन समर में,
कर्म ही मानव को सिखाता युद्ध करना संकटों में ,
मानवता बेली पनपती कर्म में ही
मिल सकती है मुक्ति बस कर्म से ही।
घहर घहर बरसे बदल , ठहर ठहर कड़के बिजली,
पर्वतों सी बाढ़ सी , या कटीली झाड़ सी,
हृदय को बींधती निकली , हो कोई भी पीर,
ठहर मत मार्ग में कहीं , लक्ष्य से बद्ध कर दृष्टि,
निर्भय हो ऐ कर्मवीर।
निभा अपना कर्तव्य और बढ़ता चल निरंतर,
हृदय को बना पत्थर मिटा दे सारे अन्तर ,
ख़ुद को बना समर्थ के सह सके अघात भीषण,
कर्म का पर्याय ही है , आत्मार्पण और समर्पण।
निराशा कूप से निकल , भर ले हृदय को आशा से प्रबल ,
भले हो झेलने समय के वार तीक्षण,
मनुज तू डर मत।
न छोड़ सहारा आस का,
क्या कभी भी कर्मशील है संकटों से हारा ?
बस हो जा निश्चिंत , अपनी नव ईश को देकर,
जो भी है बस यहीं है,
क्या जाएगा लेकर?
इसलिए यह मर्म कर,
इसे अपना धर्म समझकर ,
कर्म कर तू कर्म कर ,जन्म भर हाँ जन्म भर,
यही है जीवन रहस्य और है जीवन समर ।।

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